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सारे त्योहार सिर्फ उदया तिथि के हिसाब से मनाना कितना सही?

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हिंदू धर्म में ये आम धारणा है कि किसी भी त्योहार को उदया तिथि के अनुसार मनाना चाहिए। उदया तिथि यानी सूर्योदय के समय जब त्योहार की तिथि लगी हो, तब उस त्योहार को मनाया जाना चाहिए। बहुत सारी जगहों पर ऐसा किया भी जाता है, लेकिन ये हर स्थिति में ठीक नहीं माना जाता। वास्तव में त्योहार काल व्यापिनी तिथि के आधार पर मनाया जाना चाहिए।

 

धर्मशास्त्रों के अनुसार कर्म, पूजा, व्रत, उत्सव, त्योहार उदया काल तिथि, मध्य व्यापिनी यानी मध्याह्न मे जो तिथि हो, प्रदोष व्यापिनी तिथि यानी प्रदोष काल में जो तिथि, अर्द्ध व्यापिनी तिथि और निशीथ व्यापिनी तिथि यानी निशीथ काल में जो तिथि हो, में करने का विधान है। जैसे राम जी का जन्म चैत्र शुक्ल नवमी तिथि को दोपहर में हुआ था तो हम मध्य व्यापिनी तिथि यानी जिस दिन मध्य दोपहर में नवमी तिथि हो, उसके हिसाब से राम नवमी मनाते हैं। ठीक उसी तरह भगवान श्रीकृष्ण का जन्म भाद्रपद मास में कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मध्य रात्रि में हुआ था। इसलिए कृष्ण जन्मोत्सव भी मध्य रात्रि में अष्टमी तिथि के आधार पर मनाया जाता है।

 

श्राद्ध कर्म का सर्वोत्तम समय दोपहर 12 से 3 माना जाता है। दशहरा प्रदोष व्यापिनी तिथि के अनुसार मनाया जाता है। यानी चाहे उस दिन का सूर्योदय नवमी तिथि में हुआ हो और दोपहर तक भी नवमी तिथि ही हो, लेकिन अगर प्रदोष काल में दशमी तिथि लग गई तो उस दिन ही दशहरा मनाया जाएगा।

 

यही तरीका बाकी त्योहारों की तिथियों को लेकर भी माना जाता है। इस आधार पर हर त्योहार उदया तिथि के साथ नहीं मनाया जा सकता। हिंदू धर्म में तमाम व्रत पूजा ऐसे हैं जिनमें व्रत का पारण चन्द्र दर्शन के बाद होता है जैसे करवाचौथ, पूर्णिमा, सकटचौथ वगैरह।इन व्रत के दौरान हमें चंद्रोदय की तिथि देखनी चाहिए यानी चंद्रोदय के समय उस तिथि का होना जरूरी है।

 

लिहाजा सिर्फ ये मानना सही नहीं है कि कोई भी त्योहार सिर्फ उदया तिथि के आधार ही मनाया जाता है। व्रत, पर्व, उत्सव हमारी लौकिक तथा आध्यात्मिक उन्नति के सशक्त साधन हैं, इन्हें हमें इनके काल व्यापिनी तिथि के आधार पर ही मनाना चाहिए। अनेकों विद्वान् जब कोई संकल्प लेते हैं तो सूर्योदय तिथि के साथ कर्म काल तिथि का भी उच्चारण करते हैं